धर्म पर निबंध

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Essay On Religion In Hindi

रुपरेखा : धर्म शब्द का अर्थ - अलग-अलग धर्म - ग्रंथों में धर्म का अर्थ - धर्म के लक्षण - धर्म के पाँच अर्थ - उपसंहार।

धर्म शब्द का अर्थ

धर्म शब्द का अर्थ होता है, जो धारण करने योग्य है, वही धर्म है। धर्म सम्पूर्ण जगत्‌ को धारण करता है, इसलिए इसका नाम धर्म है। धर्म ने ही समस्त प्रजा को धारण कर रखा है, क्योंकि वह चराचर प्राणियों सहित त्रिलोक का आधार है। धर्म शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में सर्वप्रथम प्रथम मंडल के २२वें सूबत के 18वें मंत्र में लिखा गया है। जिसका अर्थ है‌ भगवान्‌ विष्णु ने (वामन रूप में) तीन पदों से विक्रम प्रदर्शित कर धर्म की रक्षा की थी। किसी वस्तु या अवस्तु की, आत्म या अनात्म की विधायक वृत्ति को भी उसका धर्म कहते हैं। प्रत्येक पदार्थ का व्यक्तित्व जिस वृत्ति पर निर्भर है, वही उस-पदार्थ का धर्म है। धर्म की कमी से उस पदार्थ में कमी है, उसका क्षय है। धर्म की वृद्धि से उस पदार्थ की वृद्धि है, विशेषता है । बेले का फूल का एक धर्म सुवास है। उसकी वृद्धि उसकी कली का विकास है। उसकी कमी से फूल का हास है। यह सभी धर्म का अर्थ दर्शाता है।

अलग-अलग धर्म

धर्म कई प्रकार के होते है जैसे एक महाज्ञानी‌ के अनुसार प्रथम यज्ञ, अध्ययन और दान, द्वितीय तप तथा तृतीय ब्रह्मचर्य जीवन, ये धर्म के तीन स्कन्थ हैं । ब्रह्मा ने कल्याण स्वरूप धर्म की सृष्टि की है । केन उपनिषद्‌ में अपने में धर्म के सदा वर्तमान रहने की कामना की गई है । तैत्तिरिय उपनिषद्‌ में धमंचर का उपदेश है । नारदपरिब्राजक उपनिषद्‌ में धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय-निग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य तथा अक्रोध, इन दस को धर्म का लक्षण (स्वरूप) कहा गया है। जैन मत में आत्मा के सदगुणों के विकास को धर्म की संज्ञा दी है। दूसरे शब्दों में, आत्मस्वरूप की ओर ले जाने वाले और समाज को धारण करने वाले विचार और प्रवृत्तियाँ ही धर्म हैं। सम्यक्‌ दर्शन, सम्यक्‌ ज्ञान और सम्यक्‌ चरित्र को धर्म कहते हैं। जैन मत में क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, अकिंचन्य और ब्रह्मचर्य का उल्लेख धर्म के रूप में किया गया है।

ग्रंथों में धर्म का अर्थ

बौद्ध दर्शन में धर्म का अभिप्राय भूत और चित्त में सूक्ष्म तत्त्वों से है, जिनका पृथककरण और नहीं हो सकता। यहाँ धर्म शब्द के दो अर्थ हैं, बुद्ध की शिक्षा, उपदेश और सिद्धान्त धर्म हैं। और दूसरी ओर धर्म अध्यात्म- आलम्बन तथा बाह्य आलम्बन, दोनों में है, किन्तु बाह्य धर्म असत्‌ है। बौद्ध-दर्शन में धर्म के तीन तत्त्वों पर बल दिया है जो की शील, समाधि और प्रज्ञा है।

धर्म के लक्षण

पुराणों ने उसका विस्तार करके धर्म के तास लक्षण बताए हैं। जिसमे महर्षि वेदव्यास ने महाभारत के बन-पर्व में धर्म के आठ मार्ग स्थापित किये है। यश, अध्ययन, दान, तप, सत्य, क्षमा, मन-इन्द्रियों का संयम तथा लोभ- त्याग, ये धर्म के आठ मार्ग हैं। किसी दार्शनिक के मत से, देश और काल के पथ पर महापुरुषों द्वारा निर्दिष्ट जीवन की वे विशिष्ट प्रक्रियाएँ, जो लौकिक एवं पारलौकिक सफलताओं का साधन बनती हैं, जिसे धर्म कही जा सकती हैं। इसी आधार पर स्वामी करपात्री जी ने विभिन्न मतों में स्वीकृत धर्म के लक्षण को स्पष्ट करते हुए अपना मत स्थापित किया है। आधुनिक समीक्षक रामचन्द्र शुक्ल की धारणा है कि वह व्यवस्था या वृत्ति जिससे लोक में मंगल का विधान होता है, अभ्युदय की सिद्धि होती है, धर्म है। व्यक्तिगत सफलता के लिए जिसे नीति कहते हैं, वह सामाजिक आदर्श की सफलता का साधक होकर धर्म हो जाता है।

धर्म के पाँच अर्थ

समवेत रूप में हम धर्म को पाँच अर्थों में विभक्त कर सकते हैं जैसे की सवर्प्रथम अर्थ है, पदार्थ मात्र की वह प्राकृतिक तथा मूलगत विशेषता या वृत्ति या गुण जो उसमें बराबर स्थायी रूप में वर्तमान रहती हो, जिससे उसकी पहचान होती हो और उससे कभी अलग न की जा सके। जैसे आग का धर्म का जलना और जलाना है | जैसे जीव का धर्म है जन्म लेना और मरना। दूसरा अर्थ है, सामाजिक क्षेत्र में नियम, विधि, व्यवहार आदि के आधार पर नियत या निश्चित वे सब काम या बातें, जिनका पालन समाज के अस्तित्व या स्थिति के लिए आवश्यक होता है और जो प्राय: सार्वत्रिक रूप से मान्य होती हैं । जैसे की अहिंसा, दया, न्याँग्च, सत्यता आदि का आचरण मनुष्य मात्र का धर्म है।

तीसरा अर्थ है, लौकिक क्षेत्र में वे सब कर्म तथा कृत्य जिनका आचरण या पालन किसी विशिष्ट स्थिति के लिए विहित हो। जैसे-माता-पिता की सेवा करना पुत्र का धर्म है। जैसे पढ़ना-लिखना, यज्ञ करना-कराना, ब्राह्मणों का मुख्य धर्म माना जाता था। चौथा अर्थ है, आध्यात्मिक क्षेत्र में ईश्वर, देवी-देवता, देव-दूत आदि के प्रति मन में होने वाले विश्वास तथा श्रद्धा के आधार पर स्थित वे कर्तव्य, कर्म अथवा धारण, जो भिन्न-भिन्न जातियों और देशों के लोगों में अलग-अलग रूपों में प्रचलित हैं और जो कुछ विशिष्ट प्रकार के आचार-शास्त्र तथा दर्शन-शास्त्र पर आश्रित होती हैं । जैसे ईसाई धर्म, इस्लाम धर्म, हिन्दू धर्म। पाँचवा और आखिरी अर्थ है, भारतीय नागर नीति में, जे सब नैतिक या व्यावहारिक नियम और विधान जो समाज का ठीक तरह से संचालन करने के लिए प्राचीन ऋषि-मुनि समय-समय पर बनाते चले आए हैं और जो स्वर्गादि शुभ फल देने वाले कहे जाते हैं। जैसे मानवता या राष्ट्रीयता के सिद्धान्तों का पालन करना ही हमारा धर्म है।

उपसंहार

महर्षि वाल्मीकि ने लिखा है, धर्म से अर्थ प्राप्त होता है। धर्म से सुख का उदय होता है। धर्म से ही मनुष्य सब कुछ पाता है। इस संसार में धर्म ही सार है। धर्महीन जीवन का दूसरा नाम सिद्धान्तहीन जीवन है और बिना सिद्धान्त का जीवन बिना पतवार की नौका के समान है। यदि किसी ने धर्म को तिरोहित या उच्छिन्न किया तो वह स्वयं ही नष्ट हो जाएगा और यदि कोई धर्म की रक्षा करता है तो धर्म उसकी रक्षा करता है। धर्म ही जीवन है, धर्म ही ज्ञान है, धर्म ही सम्मान है, धर्म ही पूजा है, धर्म ही आस्था है।

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